March 28, 2024

देश के लिए जान लुटाने वाले सेनानियों के आश्रितों को मात्र 4 हजार की कुटुंब पेंशन हास्यास्पद

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-अपनी समस्याओं को लेकर मंडलायुक्त से मिले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रित

मंडलायुक्त को ज्ञापन सोंपते अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उत्तराधिकारी समिति संगठन के सदस्य।

डॉ. नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 9 दिसंबर 2021। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों का एक शिष्टमंडल बृहस्पतिवार को अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उत्तराधिकारी समिति संगठन के बैनर तले कुमाऊं मंडल के आयुक्त दीपक रावत से मिला। सदस्यों ने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को वर्ष 2018 से उत्तराखंड सरकार के द्वारा चार हजार रुपए की कुटुंब पेंशन दिए जाने का प्राविधान किया गया है।

हास्यास्पद है कि यह पेंशन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सभी आश्रितों में बंटनी है। यानी यदि किसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के 4 आश्रित हों तो सबको 1-1 हजार रुपए या 8 आश्रित होने पर 500-500 रुपए पेंशन मिलेगी। इसके बावजूद कई शर्ताें के कारण यह पेंशन भी पात्रों को नहीं मिल पा रही है।

इस दौरान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रथम पीढ़ी के आश्रितों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भांति सुविधाएं एवं द्वितीय पीढ़ी के आश्रितों को भी प्रथम पीढ़ी के आश्रितों की भांति सुविधाएं देने, पूर्व में हो चुकी घोषणा के अनुरूप कुटुंब पेंशन की धनराशि 4 हजार को बढ़ाकर 10 हजार करने का शासनादेश जारी करने, बस के साथ रेलयात्रा की सुविधा भी देने, शिक्षा व नौकरी में 3 की जगह 5 फीसद आरक्षण दने, उत्तराधिकारी की बेटी की बेटियों को भी भी विवाह हेतु 50 हजार रुपए की धनराशि अनुदान स्वरूप देने तथा भूमिहीन उत्तराधिकारियों को शासनादेश के अनुरूप 100 वर्ग मीटर भूमि निःशुल्क आवंटित करने की मागें भी उठाई गई।

शिष्टमंडल में संगठन की संयोजक अनुपम उपाध्याय, जिलाध्यक्ष उमेश जोशी, महिला अध्यक्ष डॉ. सरिता कैड़ा, महिला उपाध्यक्ष बीना उप्रेती, पवन बिष्ट, आनंद जोशी व आकांक्षा उप्रेती आदि शामिल रहे।

2017-18 की इंटर उत्तीर्ण बालिकाओं को सिर्फ 5000 कन्याधन, अन्य को 51 हजार
नैनीताल। वार्ता के दौरान समस्या रखे जाने पर मंडलायुक्त दीपक रावत ने जिला कार्यक्रम अधिकारी वे वार्ता कर स्पष्ट किया कि 2017 व 2018 में इंटरमीडिएट उत्तीर्ण करने वाली बालिकाओं को केवल 5000 रुपए ही नंदा गौरा कन्याधन योजना के तहत मिलेगा, जबकि इससे पूर्व व बाद के वर्षों की बालिकाओं को 51 हजार रुपए कन्याधन दिया जा रहा है। माना गया कि यह इन बालिकाओं के साथ अन्याय जैसा है।

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-सोते हुए घर से गिरफ्तार किये गये, यातनाएं झेलीं, फिर भी अपनी सरकार ने भी नहीं दिया सम्मान-मान्यता
नवीन जोशी @ नवीन समाचार, नैनीताल, 25 जून 2020। 25 जून 1975 की मध्य रात्रि से 21 मार्च 1977 के बीच लगे आपातकाल के भारतीय लोकतंत्र के सर्वाधिक काले इतिहास दौर की भेंट चढ़ने वालों के जख्म हर वर्ष 25 जून को हरे हो जाते हैं। सरोवरनगरी के भी दो ऐसे वयोवृद्ध लोग हैं, जिन्होंने लोकतंत्र की हत्या होते न केवल अपनी आंखों से देखा, वरन इसके भुक्तभोगी भी बने। पुलिस द्वारा रात्रि में सोते हुए पकड़े गए। दो रात हवालात में रखकर पीटे गए। जेल जाने पर जमानत के लिए आवेदन किया तो न्यायालयों में भी व्याप्त हो चला भ्रष्टाचार झेला। किसी तरह जमानत मिली तो जमानती भी इसलिए नहीं मिले कि संबंध होने के आरोप में कहीं पुलिस उन्हें भी गिरफ्तार न कर ले। इसी कारण ना ही गिरफ्तार होने पर घर वालों की और ना ही जेल से छूटने के बाद उनकी कुशल क्षेम पूछने ही कोई परिचित-पड़ोसी आया। इसी कारण लंबे समय तक लोग उनकी दुकान पर भी नहीं आते थे। इतनी परेशानियां झेलीं तो स्वप्न देखते थे कि कभी अपनी सरकार भी आएगी। अपनी सरकार आई और है भी, लेकिन उसने भी ठुकरा दिया। कभी ताम्रपत्र देने की बात हुई। कभी लोकतंत्र सेनानी घोषित करने का ख्वाब दिखाया। लेकिन नतीजा सिफर। फलस्वरूप लोकतंत्र के ये सेनानी आज भी उन स्थितियों से उबर नहीं पा रहे हैं। अपनी ही सरकार में भी हताश-निराश हैं।

यह कहानी मुख्यालय निवासी भारतीय जनता पार्टी के पूर्व जिलाध्यक्ष रहे भुवन चंद्र हरबोला एवं आरएसएस के कामेश्वर प्रसाद काला की है। हरबोला को 16 नवंबर 1975 को किराये के घर में सोते हुए हल्की पूछताछ के नाम पर मल्लीताल कोतवाली के गब्बर सिंह कहे जाने वाले तत्कालीन थाना प्रभारी ने की थी। उन्हें एक रात मल्लीताल और एक रात तल्लीताल थाने में रखा गया और 18 नवंबर को हल्द्वानी जेल भेजा गया, जबकि काला 1 दिसंबर को हल्द्वानी में सरकार विरोधी एक रैली के दौरान गिरफ्तार हुए। दोनों संघ के स्वयं सेवक थे। इसलिए सरकार उनके पीछे लगी थी। संघ के बड़े अधिकारियों ने उन्हें जल्दी जमानत ले लेने की सलाह दी, ताकि वे संघ की शाखाएं लगाने जैसी अपनी गतिविधियों को जारी रख सकें। इसलिए दोनों करीब एक सप्ताह जेल में रहकर जमानत पर बाहर आ गये। लेकिन न्यायालय में मुकदमा 21 मार्च 1977 को जनता पार्टी की सरकार आने तक चलता रहा। 1977 के चुनाव में देश के साथ नैनीताल लोक सभा में भी इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी को भारतीय लोकदल के  एक गुमनाम से चेहरे भारत भूषण ने पटखनी दे दी थी। श्री काला बताते हैं, जेल से आने पर भी कोई उनके घर की सीढ़ियां चढ़ने को तैयार नहीं था, क्योंकि लोग डरते थे कि उन्हें भी पकड़ लिया जाएगा। वहीं हरबोला बताते हैं जेल से छूटने के बाद भी पुलिस-प्रशासन उन्हें फिर से किसी तरह अंदर करने की जुगत में था। इसलिए वे एक दिन अपने भाई के साथ नैनीताल की बिड़ला चुंगी से होते हुए पैदल जंगल के रास्ते रातीघाट होते हुए जनपद से बाहर निकल गये थे। उन्होंने कहा कि आपातकाल के दौरान जेल में गये गिने-चुने लोग ही बचे हैं, फिर भी सरकार की मंशा उन्हें किसी तरह की मान्यता-सम्मान देने की नहीं है। इससे वे निराश और हताश हैं।

उत्तराखंड सरकार की योजना का लाभ नहीं मिला

नैनीताल। विगत वर्षों में उत्तराखंड सरकार ने आपातकाल के दौरान डीआईआर यानी ‘डिफेंस इंडिया रूल्स’ से इतर मीसायानी ‘मेन्टीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट’ में जेल गये ‘लोकतंत्र सेनानियों’ को प्रतिमाह 16 हजार रुपये की पेंशन देने की घोषणा की थी। इस पर नैनीताल जनपद में ऐसे लोगों की पड़ताल की गयी, तो तत्कालीन संयुक्त नैनीताल जिले के कुल 10 लोगों की पहचान हुई, जिनमें से पांच लोग वर्तमान में भी नैनीताल जिले और शेष पांच अब ऊधमसिंह नगर के हिस्से के निवासी मिले। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार नैनीताल जिले के मौजूदा निवासी बताये गये पांच में से तीन लोगों की मृत्यु हो चुकी थी, जबकि शेष दो अपने पतों पर मिल नहीं पाये। अलबत्ता जिला प्रशासन के प्रयासों से अन्य जिलों से भी नैनीताल जनपद व खासकर हल्द्वानी में आ बसे कुल 9 लोगों ने आवेदन किये। इनमें हरबोला और काला भी शामिल रहे, लेकिन निर्धारित से कम अवधि जेल में रहने के कारण उन्हें योजना का लाभ नहीं मिला।

कोश्यारी, त्रिपाठी, शर्मा सहित उत्तराखंड के 325 सेनानी गये आपातकाल में जेल

नैनीताल। आपातकाल में उत्तराखंड के 325 लोगों को डीआईआर यानी ‘डिफेंस इंडिया रूल्स’ एवं मीसा यानी ‘मेन्टीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट’ के जेलों में ठूंसा गया। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री व मौजूदा महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व विधायक अधिवक्ता गोविंद सिंह, भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष पूरन चंद्र शर्मा, उत्तराखंड क्रांति दल के संस्थापक सदस्य व विधायक विपिन चंद्र त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ नेता भी शामिल रहे।

सर्वाधिक 116 सेनानी ठूंसे गये हल्द्वानी जेल में

नैनीताल। आपातकाल के दौरान उत्तराखंड के जिन 325 लोगों को जेलों में ठूंसा गया, उनमें से सर्वाधिक 116 को नैनीताल जिले के हल्द्वानी उप कारागार में, 81 को नैनीताल जिला कारागार में, 52 को देहरादून की जेल में, 39 को अल्मोड़ा जिला जेल में, 29 को रुड़की जेल में और चार को टिहरी जेल में डाला गया था।

यह भी पढ़ें : आपातकाल के लोकतंत्र सेनानीः उम्र के आखिरी दौर में 7 को मिला लाभ, 4 के मामले लंबित

-नैनीताल जनपद से पहले 9 लोगों ने किया था आवेदन, इनमें से 7 को 1 वर्ष की पेंशन जारी, 2 के मामले में फिर से मांगी गयी है जांच रिपोर्ट, 2 नये आवेदन भी आये
नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड सरकार ने 1975-77 के दौर में लगे आपातकाल के दौर में जेलों में ठूंस दिये गये ‘लोकतंत्र सेनानियों’ की सुध लेने में देर से ही सही लेकिन पहल कर दी है। कमोबेश बिना कारण झेली गयी उन भयावह यातनाओं को चार दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद ‘लोकतंत्र सेनानियों’ को प्रतिमाह 16 हजार रुपये की पेंशन देने की घोषणा हुई है, जिसके बाद जनपद में जीवित बचे 10 में से 9 लोकतंत्र सेनानियों ने यह दर्जा व पेंशन हासिल करने के लिए आवेदन किया था। अलबत्ता, नैनीताल के पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष भुवन चंद्र हरबोला एवं वयोवृद्ध आरएसएस नेता कामेश्वर प्रसाद काला को छोड़कर शेष 7 लोगों को बीते माह पेंशन स्वीकृत होने के साथ ही 1 वर्ष की एकमुश्त जारी हो गयी है। वहीं इधर 2 नए लोगों ने भी बीते माह आवेदन कर दिये हैं। नैनीताल मुख्यालय निवासी इन दो लोकतंत्र सेनानियों के बारे में शासन ने फिर से जांच रिपोर्ट जिला प्रशासन से मांगी है।

उल्लेखनीय है कि 25 जून 1975 की मध्य रात्रि से 21 मार्च 1977 के बीच देश में लगे आपातकाल के दौर में देश भर के साथ उत्तराखंड राज्य के लोगों को भी तत्कालीन इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के आंखों में वैचारिक तौर पर खटकने भर से जेलों में ठूंस दिया गया था। इधर इस वर्ष राज्य सरकार ने आपातकाल के दौरान डीआईआर यानी ‘डिफेंस इंडिया रूल्स’ से इतर मीसायानी ‘मेन्टीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट’ में जेल गये ‘लोकतंत्र सेनानियों’ को प्रतिमाह 16 हजार रुपये की पेंशन देने की घोषणा की थी। इस पर नैनीताल जनपद में ऐसे लोगों की पड़ताल की गयी, तो तत्कालीन संयुक्त नैनीताल जिले के कुल 10 लोगों की पहचान हुई, जिनमें से पांच लोग वर्तमान में भी नैनीताल जिले और शेष पांच अब ऊधम सिंह नगर के हिस्से के निवासी हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार नैनीताल जिले के मौजूदा निवासी बताये गये पांच में से तीन लोगों की मृत्यु हो चुकी है, जबकि शेष दो अपने पतों पर मिल नहीं पाये। अलबत्ता जिला प्रशासन के प्रयासों से अन्य जिलों से भी नैनीताल जनपद व खासकर हल्द्वानी में आ बसे कुल 9 लोगों ने आवेदन किये हैं।

नैनीताल जनपद से इन लोगों ने किये हैं आवेदन :

1. जगन्नाथ पांडे पुत्र स्व. केशव दत्त पांडे, निवासी हरिपुर नायक हल्द्वानी।
2. पूरन चंद्र शर्मा पुत्र स्व. भवानी दत्त शर्मा, निवासी छड़ायल नायक हल्द्वानी।
3. पुनीत लाल पुत्र नानक चंद्र, निवासी विष्णु पुरी हल्द्वानी।
4. शोबन सिंह अधिकारी पुत्र स्व. बिशन सिंह निवासी कुसुमखेड़ा हल्द्वानी।
5. ललित किशोर पांडे पुत्र कृष्ण पांडे निवासी आनंदपुरी हल्द्वानी।
6. गिरीश चंद्र कांडपाल पुत्र जय दत्त कांडपाल निवासी भूमिया विहार मुखानी हल्द्वानी।
7. भुवन चंद्र हरबोला पुत्र स्व. हरी दत्त हरबोला निवासी माल रोड मल्लीताल।
8. केपी काला पुत्र स्व. परशुराम काला, निवासी, जय लाल साह बाजार, नैनीताल।
9. ताहिर हुसैन पुत्र हसगर हुसैन निवासी लाइन नंबर 7, आजाद नगर हल्द्वानी।
इनमें से भुवन चंद्र हरबोला एवं केपी काला के मामले में शासन से फिर से जांच आख्या जिला प्रशासन से मांगी गयी है।

संयुक्त नैनीताल जनपद के यह 10 हैं मूल लोकतंत्र सेनानी

नैनीताल। नैनीताल जनपद के पांच लोग-नवाब जान पुत्र नबी जान निवासी बनभूलपुरा हल्द्वानी, संतोष सिंह पुत्र देवीदयाल निवासी धर्मपुर हल्द्वानी, निर्मल सिंह पुत्र चंदन सिंह निवासी हल्द्वानी, जोगेंद्र कुमार पुत्र सीता राम व शिवशंकर पुत्र होदी लाल निवासी बरेली रोड वर्तमान में भी नैनीताल जिले के निवासी हैं। अलबत्ता इनमें से निर्मल सिंह के पते में जहां केवल थाना एवं स्थान हल्द्वानी लिखा होने की वजह से पता अस्पष्ट है, वहीं शिव शंकर नाम के व्यक्ति बरेली रोड हल्द्वानी में मिल नहीं पाये हैं, जबकि एलआईयू एवं राजस्व पुलिस की रिपोर्टों के अनुसार अन्य तीन लोगों की मृत्यु हो गयी है। वहीं तत्कालीन नैनीताल जनपद के शेष अन्य पांच लोग-सुभाष चर्तुवेदी पुत्र राधे श्याम निवासी खेड़ा रुद्रपुर, अजीत सिंह पुत्र मान सिंह निवासी बन्ना खेड़ा बाजपुर, सुरजीत सिंह पुत्र पूरन सिंह निवासी रोशनपुर गदरपुर, दीवान सिंह पुत्र धान सिंह निवासी मनाउ पाडला खटीमा अब नैनीताल जनपद से अलग हो चुके ऊधम सिंह नगर जनपद के हैं। उनके बारे में ऊधम सिंह नगर जिला प्रशासन पड़ताल कर रहा है।

आपातकाल-संदर्भ :

समग्र क्रान्ति का सपना अधूरा है : नानाजी देशमुख

इमरजंसी का सन्दर्भ दो नजरियों से माना जाता है। एक ? दृष्टि यह थी कि 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया था उसके बाद इन्दिरा गांधी को प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए, मगर उन्होने दिया नहीं। जब देश मे उनके इस्तीफे की आवाज उठने लगी तो उन्हे उसे कुचलना ही था। हाईकोर्ट के फैसले के अगले दिन याने 13 जून को ज़्यादातर विरोधी दलों के बड़े नेता दिल्ली से बाहर थे, अपनी-अपनी बैठको में। मे उस दिन दिल्ली में था। पहल कर पीलू मोदी (स्वतंत्र पार्टी), सिकन्दर बख़्त(संगठन कांग्रेस) और रविराय (सपा) से मिलने गया। मैंने तीनों से कहा की मामला गड़बड़ हो गया है। इन्दिरा गांधी इस्तीफा नहीं दे रही हैं। लगता है देश में तानाशाही आएगी। हमने इन्दिरा गांधी के इस्तीफे की मांग के लिए राष्ट्रपति भवन में धरने का निर्णय लिया। राष्ट्रपति तब कश्मीर में थे फिर भी हमने एक तरफ तो धरना शुरू कर दिया दूसरी तरफ प्रमुख विपक्षी नेताओं को तार भेजकर तुरंत दिल्ली पहुँचने को कहा। वे 15 जून को वहाँ पहूंचे। मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में सर्वदलीय बैठक हुई । तानाशाही का रास्ता साफ दिख रहा था। इसी बैठक में एक संघर्ष समिति बनी। मुझे महासचिव बनाया गया। अशोक मेहता इसके कोषाध्यक्ष थे।

इमरजंसी लगने की जानकारी मुझे 25 जून को रात में साढ़े नौ बजे ही लग चुकी थी । दूसरों को शायद यह खबर नहीं थी। मुझे मेरे सूत्रो ने यह भी बता दिया था कि इमरजंसी की घोषणा आधी रात को होगी और उसके बाद सभी बड़े विपक्षी नेताओ को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। चूंकि में संघर्ष समिति का महासचिव था सो मुझे गिरफ्तारी से बचना ही था। मै रात मै ही एक परिचित के घर जा छिपा। मैंने रात में ही सुब्रमण्यम स्वामी को जेपी के पास भेजा। यह बताने कि इमरजंसी लागू होने वाली है। और उन्हे गिरफ्तार किया जाएगा। लेकिन तब जेपी को मेरी बात का यकीन नहीं हुआ। वे मानते थे कि उन्हे गिरफ्तार किया गया तो देश में आग लग जाएगी। मैंने भूमिगत रहकर देश भर का दौरा किया । कार्यकर्ताओ से छिपकर मिलता रहा। और इमरजंसी के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। मुझे पूरा यकीन था कि इमरजंसी स्थायी नहीं है। कार्यकर्ताओ से भी मै यही कहता था कि घबराने कि जरूरत नहीं है। लेकिन 18 अगस्त को दिल्ली मे मुझे पकड़ लिया गया। कुछ दिन दिल्ली कि जेल मे रखने के बाद फिर अंबाला भेज दिया गया। दिल्ली मे ही चौधरी चरण सिंह और प्रकाश सिंह बादल भी थे। चौधरी काफी घबराए हुए थे । उन्हे आशंका थी कि इन्दिरा गांधी उनके समेत तमाम विरोधियों को एक कतार में खड़ा कर गोली से उड़वा देगी। लेकिन मैंने उन्हे हिम्मत बंधाई।
इमरजंसी का इस तरह एक संदर्भ तो इसके खिलाफ संघर्ष था। दूसरा संदर्भ बिहार आंदोलन है। जेपी ने इस आंदोलन को समग्र क्रान्ति नाम दिया था जो बाद में इमरजंसी से जुड़ गया। जेल मे रहकर ही मुझे ख्याल आया कि इन्दिरा गांधी की तानाशाही के मुक़ाबले के लिए सभी दलों को एक साथ आना चाहिए। मैंने सबको तैयार किया और यह भी कि इसका नेतृत्व जेपी करेंगे तभी चल पायेगा। शुरू मे जेपी इन्दिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन को राजी नहीं थे, यह इमरजंसी से पहले का संदर्भ है। वे इन्दिरा को अपनी बेटी मानते थे मगर भुवनेश्वर में जब पत्थर इन्दिरा गांधी कि नाक पर लगा और वहीं उन्होने नाम लिए बिना जयप्रकाश नारायण को पूँजीपतियों का हिमायती कह कर हमला किया तो जेपी की आँख खुली। जेपी मुझ पर समाजवादियों से ज्यादा भरोसा करने लगे थे।
जहां तक इमरजंसी की स्मृति का सवाल है, वह मेरे मानस पटल पर स्थायी है मगर दुख के साथ। असली दुख यह भी है कि इमरजंसी के बाद जो सरकार आई वह चल नहीं पाई। समग्र क्रान्ति कि बात धरी रह गई। नेता सत्ता के लिए लड़ने लगे। झगड़ा तो प्रधानमंत्री पद को लेकर सरकार बनते ही सामने आ गया था। मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चरण सिंह तीनों ही इच्छुक थे। इसलिए मैंने कहा था कि 60 वर्ष की आयु होते ही राजनीतिकों को सक्रिय राजनीति से अलग हो जाना चाइए। मै खुद भी अलग हो गया था, मगर किसी पर मेरी बात का असर नहीं हुआ।
इमरजंसी की दुखद स्मृति यही है कि हमने जिस उद्देश्य के लिए आंदोलन किया और कष्ट सहे, उसे सत्ता के लिए भुला दिया। सत्ता के लिए आपस मे लड़ने लगे। इमरजंसी की सुखद स्मृति तो खैर हो ही नहीं सकती। इमरजंसी किसी भी रूप मे अच्छी थी, ऐसी मेरी धारणा कभी नहीं रही न ऐसी धारणा रखने वालो से मेरी कोई सहमति हो सकती है। मैंने मोरारजी देसाई को पत्र लिखकर सुझाव दिया था कि वे प्रधानमंत्री पद छोड़ दें मगर वे नहीं माने। आखिर उन्हें हटाया गया।
मैं जनता पार्टी की सरकार बनने के अध्याय को दूसरी आजादी नहीं मानता। आजादी तब होती अगर जनता पार्टी के लोग मिलजुल कर ईमानदारी से सरकार चलाते। मगर सत्ता के लिए आज भी लोग आपस में लड़ रहें है। इसलिए देश में अस्थिरता है। इमरजंसी का सबक मेरी राय में यहीं है कि सत्ता के लिए अनीति अख़्तियार नहीं करनी चाइए। आखिर इमरजंसी हटते ही इन्दिरा गांधी को भी हटना पड़ा, मगर अफसोस की बात है। कि सत्ता के उसी फेर में सब अभी भी उसी तरह फसें है। इमरजंसी का एक सबक यह भी है कि सत्ता को तरजीह नहीं दी जानी चाहिए। जहां तक इमरजंसी के फिर कभी लागू होने कि आशंका का सवाल, जो सरकार खुद अस्थिर हो, वह कभी इमरजंसी नहीं लगा सकती। यह अधिनायकवादी कदम मजबूत सरकार ही उठा सकती है। (साभार- क्रान्ति पथ)

विश्वमानवता के विकास की दिशा में मील का पत्थर था भूमिगत आंदोलन : अटल बिहारी वाजपेयी

”आपातस्थिति में जो भूमिगत आंदोलन चला, उसकी तुलना अफ्रीकी देशों, वियतनाम या बोलिविया अथवा और कहीं के भूमिगत गोरिल्ला संघर्षों से नहीं की जा सकती है। इसका सबसे बड़ा कारण है भारतीय भूमिगत आंदोलन का अहिंसक होना। जहाँ पूर्वोक्त क्रांतिकारियों की दार्शनिक प्रेरणा कहीं मार्क्स से जुड़ी थी, वहाँ भारत के इस भूमिगत आंदोलन की दार्शनिक प्रेरणा गांधी और जयप्रकाश की थी। एक अर्थ मे यह गांधीवादी संघर्ष सत्याग्रह तथा असहयोग की तकनीक का अगला विस्तार था। अहिंसक युद्ध के नये अवाम का आविष्कार था अहिंसक क्रान्ति होना इसकी नियति ही नहीं थी, बल्कि मानवमात्र के लिए पाशविक संघर्ष से शिष्ट संघर्ष की और बढ़ने के प्रयोगसिद्ध विकल्प की खोज भी थी।
……. इस अर्थ मे भारत के भूमिगत आंदोलन के परिणाम, मानवीय गरिमा, लोकतंत्र की सफलता, साम्राज्यवाद के अन्मूलन, दासता और शोषण के नये-पुराने रूपों को पराजित करने की जद्दोज़हद और समतामय विश्वमानवता के विकास की दिशा में मील का नया पत्थर है।” (साभार- क्रान्ति पथ)

दुनिया का सबसे बड़ा भूमिगत आंदोलन : दीनानाथ मिश्र

क्रान्तिकारी संख्याबल में बहुत कम होते हैं, और जनता उनसे मानसिक रूप से जुड़ी नहीं होती। किन्तु यहाँ संघर्ष से जुड़े कार्यकर्ताओं की संख्या लाखों में थी और आम जनता मानसिक रूप से भूमिगत कार्यकर्ताओं से सहानुभूति का अनुभव करती थी।प्रायः भूमिगत आंदोलन किसी न किसी विदेशी सरकार की मदद पर चलते है, पर भारत का यह भूमिगत आंदोलन सिर्फ स्वदेशी शक्त, साधन प्रेरणा से चलता रहा। मानवीय शक्ति और समर्थन के पैमाने पर भारत का भूमिगत आन्दोलन दुनिया का सबसे बड़ा भूमिगत आन्दोलन था।”

यह भी पढ़ें : बड़ा फैसला: स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पुत्री के बच्चे भी माने जाएंगे आश्रित और पा सकेंगे लाभ..

नवीन समाचार, देहरादून, 2 अगस्त 2019। उत्तराखंड हाईकोर्ट की न्यायमुर्ति सुधांशु धूलिया की एकलपीठ ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के पुत्री के बच्चों को भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आश्रित मानते हुए उत्तराखंड विकलांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व भूतपूर्व सैनिक आरक्षण अधिनियम की धारा (2) को असंवैधानिक करार दिया है और चम्पावत के जिलाधिकारी को निर्देश दिया है कि वे याचिकाकर्ता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के पुत्री का लड़का है, को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आश्रित का प्रमाण पत्र जारी करें।
मामले के अनुसार चम्पावत निवासी सावित्री देवी बोरा ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि उत्तराखंड में लागू उत्तर प्रदेश का स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, विकलांग व भूतपूर्व सैनिकों के आश्रितों को मिलने वाला 2 फीसद आरक्षण अधिनियम 1993 में अंग्रेजी में ग्रांड सन व ग्रांड डॉटर शब्द लिखा है। किंतु राज्य सरकार ने अधिनियम की धारा 2 में प्रावधान किया कि पुत्री के बच्चों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का आश्रित नहीं माना जायेगा, जिस कारण उन्हें 2 फीसदी आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। सावित्री देवी बोरा व उनके पुत्र राकेश भूषण बोरा ने इसे लिंग आधारित पक्षपात व संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 के खिलाफ बताया। मामले को सुनने के बाद अदालत ने इस अधिनियम की धारा 2 को असंवैधानिक घोषित करते हुए चम्पावत के जिलाधिकारी को आदेश दिया है कि वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पुत्री सावित्री देवी के पुत्र राकेश भूषण बोरा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आश्रित प्रमाण पत्र जारी करें ।

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